शिष्य की पात्रता



शिष्य की पात्रता 
मुनि श्री 108 प्रमाणसागर जी के प्रवचनांश

एक बार राजा जनक के आमंत्रण पर संत व्यास जी उन्हें कथा सुनाने के लिये आए। कथा बड़ी होने से कई दिनों से चल रही थी। एक दिन शासकीय कार्यों के कारण राजा को आने में थोड़ी देर हो गई। व्यास जी जनक की प्रतीक्षा करते रहे। इस वजह से अन्य शिष्यों को बहुत बुरा लगा और वे व्यास जी से विनयपूर्वक शिकायत करते हुए बोले, "आप जैसे संत पुरुषों के द्वारा राजा-महाराजाओं की प्रतीक्षा करना अच्छा नहीं लगता। अध्यात्म के दरबार में सब समान होते है! क्या हम लोगों में कोई पात्रता नहीं है?" उस समय व्यास जी ने कोई जबाव नहीं दिया फिर जब राजा जनक आए तब कथा प्रारम्भ हुई और इसके साथ ही उन्होंने अपनी माया से महल में आग लगा दी। राजमहल में आग की भनक लगते ही, वहाँ जितने लोग थे सब सभा छोड़कर भागने लगे सबने सोचा कहीं आग हमारी कुटिया तक न फैल जाए। सभा में केवल दो व्यक्ति बचे थे व्यास जी व राजा जनक । व्यास जी ने अपनी माया समेटी और आग बुझ गयी। जब सब लोग सभा में वापस आए तो व्यास जी ने कहा- तुम लोग केवल आशंका में भागे कि मेरी कुटिया में आग न लग जाए, , लेकिन राजा जनक जिनके महल में आग लगी थी वे यहाँ से हिले तक नहीं । जनक राजा जरूर हैं, परन्तु एक अच्छे तत्वज्ञानी हैं इसलिये मैंने उनकी प्रतीक्षा की। तुम लोगों में अभी वह पात्रता प्रकट नहीं हुई है कि तुम्हें मैं ब्रह्म ज्ञान दूँ ।

इसलिए दूसरों से तुलना करने से पहले अपना निरीक्षण करना आवश्यक है। हमें अपने गुरु पर पक्का श्रद्धान होना चाहिए क्योंकि गुरु अपने शिष्यों की पात्रता को भली-भाँती जानते है और उसी के अनुरूप निर्णय लेते है ।

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