झूठ का फल
झूठ का फल
हमारे गाँव में एक मन्दिर है। मन्दिर काफी पुराना हैं। जब जमींदारी थी, उस समय जमींदार साहब ने बनवाया था। पर तभी जमींदारी खत्म हो गयी और मन्दिर अधूरा रह गया।
अधूरा होने के कारण मन्दिर बरसात नहीं सह पाया और कमरे गिर गए। बचा सिर्फ एक कमरा उसी में कृष्ण जी की एक मूर्ति थी और एक पुजारी रोज सुबह-शाम कृष्ण की पूजा करता था।
मन्दिर में एक साधु आया। पुजारी से बोला “महाराज, मन्दिर के एक कोने में मैं भी पड़ा रहूँगा। मैं भी भगवान के दर्शन करूँगा और मन्दिर में सफाई वगैरह कर दिया करूँगा।"
“आप तो साधु हैं। मन्दिर तो साधु-महात्माओं के लिए ही होता है। मैं पुजारी हूँ तो क्या, मन्दिर पर असली अधिकार तो आपका ही है।"
साधु प्रसन्न हो गया। वह यही तो चाहता था। वह देखता था कि मन्दिर में बहुत से लोग रहते हैं। यदि इन्हें किसी तरह भुलावें में डाल दिया जाए तो बहुत ध न इकट्ठा किया जा सकता है। वास्तव में वह साधु वेश में एक ठग था।
साधु ने पुजारी से कहा, “मैं बहुत बड़ा साधक हूँ। मुझे सिद्धियाँ आती हैं। आप जब रात को घर चले जाते हैं तो मैं धूनी रमाकर साधना शुरू करता हूँ।” “यह तो बहुत अच्छी बात है।” पुजारी ने कहा,
“मन्दिर में साधना करनी ही चाहिए। अब तो मन्दिर के प्रति लोगों की श्रद्ध और बढ़ जाएगी।” मन्दिर में पूजा भी हो रही थी। भक्त भी आ रहे थे।
और साधु साधना भी कर रहा था। कुछ दिन बाद फिर साधु ने कहा, “पुजारी जी,
मैं अपनी साधना से भगवान की बोली सुनवा सकता
“अच्छा”, पुजारी को आश्चर्य हुआ। फिर उन्होंने कहा, “क्या आप आज मुझे भगवान की बोली सुनवा सकते हैं?
“जरूर ! रात को दस बजे भगवान बोलेंगे। आप उनकी बोली साफ-साफ सुनेंगे। मैं आज अपनी साधना से भगवान को कमरे में बुला दूँगा।'
पुजारी पूजा करके आठ बजे फिर आने की बात कहकर चले गए। जब वापस आए तो धूनी रमाये बैठा था। वह लाल कपड़ों में बड़ा अजीब लग रहा था। धूनी के पास त्रिशूल गड़ा था और लोबान की महक और धुआं चारों ओर फैल रहा था।
पुजारी के आते ही साधु ने कहा, “आप चुपचाप बैठ जाइए। भगवान अभी बोलेंगे। मैं बिजली बुझा दूँगा। भगवान अंधेरे में आएँगे।”
साधु कृष्ण की मूर्ति के पास चला गया। उसने बिजली बन्द कर दी। तभी जोर से झन्न की आवाज हुई और भगवान बोलने लगे, “मैं भगवान हूँ सबके कल्याण के लिए मैं प्रकट हुआ हूँ। सब मेरी भक्ति करो। मुक्ति पाओगे। मेरा आशीर्वाद है।"
आवाज बन्द हो गई। साधु ने बिजली जला दी। पुजारी साधु के पैरों पर गिर पड़े, “महाराज, आप सच्चे साधक हैं। आपकी कृपा से आज मैंने भगवान का आशीर्वाद पा लिया।" पुजारी ने यह कहकर साधू के पैरों पर दस रुपये का नोट रख दिया।
दूसरे दिन पूरे गाँव में भगवान के आशीर्वाद देने की बात फैल गई। रात होने पर बीसों लोग आए और साधु ने बिजली बन्द करके भगवान की बोली सबको सुनवाई। लोगों ने रुपये, कपड़े और अनाज वगैरह बहुत-सी चीजें दान कीं। साधु मालामाल होने लगा।
"बेटा, आज मुझे भी भगवान का दर्शन कराने ले चलना।" सार्थक की दादी बोली। वे भगवान की बड़ी भक्त थीं। जब उन्होंने सुना कि भगवान मन्दिर में अपनी बोली बोलते हैं और सबको आशीर्वाद देते। हैं, तो बड़ी प्रसन्न हुई।
"अच्छा दादी ले चलूँगा।" सार्थक बोला, वह भी चाहता था कि इस रहस्य को जाने, क्योंकि उसे विश्वास नहीं था कि भगवान अपनी बोली में बोलते है।
शाम को वह अपने दोस्त गोलू, बंटी और हरीओम के यहाँ गया और उनसे भी चलने को कहा, “देखें, क्या माजरा है। साधु की कोई करतूत लगती है। वह धोखे में डालकर गाँव वालों को ठग रहा है।"
"हमें भी यही लगता है।” हरिओम ने कहा। शाम होते ही मन्दिर में लोग इकट्ठा होने लगे। धूनी जल रही थी। लोबान की महक और धुआं चारों ओर फैल रहा था। इधर-उधर लाल-लाल कपड़े टंगे हुए थे। साधु भी पूरी देह पर भभूत लगाए और लाल कपड़ा पहन बैठा था। सब-कुछ देखकर भय जैसा लगता था।
सार्थक भी अपनी दादी और दोस्तों को लेकर पहुँचा और एक ओर बैठ गया।
साधु बोला- आप लोग शांतिपूर्वक पालथी मार कर और हाथ जोड़कर बैठ जाइए। अभी मैं अंधेरा करता हूँ। अंधेरा होते ही भगवान सबको आशीर्वाद देंगे। फिर वह बोला- “लेकिन कोई बिजली नहीं जलाए। यदि किसी ने बिजली जलाई तो भगवान उसे श्राप दे देंगे और वह नष्ट हो जाएगा। सावधान। " साधु ने बिजली बन्द की और झन्न की आवाज हुई। भगवान ने बोलना शुरू कर किया, “मैं भगवान हूँ। सबके......!”
अभी यह वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि बिजली आ गई। बिजली चुपके से सार्थक ने जला दी थी। बिजली जलते ही सबने देखा कि साधु, कृष्ण की मूर्ति के पास बैठा है और टेपरिकार्डर गोद में रखे हुए है। टेपरिकार्डर से ही आवाज आ रही है। साधु ने टेपरिकार्डर छिपाने की कोशिश की।। उसने भागना भी चाहा। पर न वह टेपरिकार्डर छिपा सका और न भाग सका। मन्दिर के पुजारी ने साधु की दाढ़ी इतनी जोर से खींची कि वह हाथ जोड़कर माफी माँगने लगा।
लोग साधु-संन्यासियों का आदर ही करते हैं। | इसलिए किसी ने उसे मारा नहीं बल्कि पुलिस को बुलाकर सौंप दिया। जो सामान साधु को मिला था, वह पुजारी को दे दिया गया।
लेकिन बिजली किसने जलाई, यह कोई नहीं , | जान पाया। यह तो सिर्फ सार्थक जानता था। जब यह बात उसने दोस्तों को बताई तो गाँववालों को भी इसकी | जानकारी हुई और पुलिसवालों को भी। पुलिसवासलों ने सार्थक को इनाम दिया और कहा, आप लोग किसी अंधविश्वास में मत पड़िये और ऐसे ही पुलिस की मदद करिए।"
बाद में पता लगा कि साधु पड़ोस की गाँव का जग्गी है, जो चोरी करता था ओर दो साल के लिए उसे जेल हुई थी। जेल में उसकी दाढ़ी बढ़ गई थी। जेल | से छूटने पर उसने साधु के वेश बनाया और इस प्रकार लोगों को धोखा देने की चेष्टा की।
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