सत्यवादी सुख पाता है

सत्यवादी सुख पाता है

एक गरीब लकड़हारा लकड़ियाँ काटने के लिए जंगल में पहुँचा, नदी किनारे एक सूखा हुआ वृक्ष खड़ा था। लकड़हारा उसी वृक्ष पर चढ़ा और उसकी मोटी-मोटी डालियाँ काटने लगा, अचानक उसके हाथ से कुल्हाड़ी छूटा और नदी की धारा में जा गिरी। लकड़हारा क्या करता। वह वृक्ष से नीचे उतरा। उसके तन से लिपटकर बैठ गया और फूट-फूटकर रोने लगा। उसका रोना सुना तो नदी में रहने वाले देवता का हृदय पसीज उठा। वे नदी से बाहर निकल आए। लकड़हारे के पास जा खड़े हुए और उससे पूछने लगे-इस तरह क्यों रो रहे हो भाई?

लकड़हारे ने कहा-महाराज! मैं गरीब लकड़हारा हूँ। दिन भर वन में लकड़ियाँ काटता हूँ और शहर में ले जाकर बेच देता हूँ। अब कैसे लकड़ियाँ काटूंगा और कैसे अपना तथा अपने बाल-बच्चों का पेट पालूँगा। यह सुनते ही देवता ने उसे समझाया- तो इस तरह क्यों आँसू बहाते हो? हम दोनों अभी नदी में गोता लगाते हैं और तुम्हारा कुल्हाड़ी निकाल देते हैं।
तभी देवता ने नदी में डुबकी लगाई और सोने की कुल्हाड़ी उसे दिखाते हुए पूछा-क्या यही तुम्हारी। कुल्हाड़ी है?
पूछने लगे-क्या यही तुम्हारी कुल्हाड़ी है? लकड़हारे ने उत्तर दिया- नहीं महाराज! देवता दूसरी बार नदी में गोता मारकर एक चांदी की कुल्हाड़ी निकाल लाए और लकड़हारे को दिखाकर पूछने लगे-लो देखो और बताओ? क्या यह तुम्हारी कुल्हाड़ी है?

लकड़हारे ने उत्तर दिया-महाराज! देवता तीसरी बार नदी में गोता मारकर एक लोटे का कुल्हाड़ी निकाल लाए और लकड़हारे को दिखाकर पूछने लगे-क्या यह कुल्हाड़ी भी तुम्हारी नहीं है?

आनन्द से लकड़हारे का चेहरा चमक उठा, उसने उत्तर दिया- जी महाराज! यही मेरी कुल्हाड़ी है।

लकड़हारे की यह सत्यवादिता देखकर देवता बहुत प्रसन्न हुए और उसे तीनों कुल्हाड़ी देते हुए बोले- तुम बड़े सत्यवादी हो। हम तुम्हारा सम्मान करते हैं। और प्रसन्नता से तुम्हें ये तीनों कुल्हाड़ी पुरस्कार में देते हैं। हमारी दया से अब तुम सदा सुख पाओगे। जब लकड़हारा गाँव में लौटा तो यह कहानी अपने मिलने-जुलने वालों को सुनाई। बस, एक आदमी का लोभ जाग उठा। वह दूसरे दिन कुल्हाड़ी लेकर वन में पहुँचा और लकड़ियाँ काटते-काटते कुल्हाड़ी जान-बूझकर नदी में फेंक दी। उसके बाद वह वृक्ष से
नीचे उतरा और उसके तने से सिर टिका कर रोने लगा। उस आदमी  के रोने धोने की आवाज सुन का देवता नदी से निकल कर आए और उससे बोले -तुम क्यू रो रहे हों भाई?
    महाराज मेरी कुल्हाड़ी नदी में गिर गई है।अब मैं कैसे अपनी गुजर बसर करूंगा।
तभी देवता ने नदी में डुबकी लगाई और सोने की कुल्हाड़ी उसे दिखाते हुए पूछा -की क्या यह तुम्हारी कुल्हाड़ी है?
उस आदमी ने आनन्द से उछलकर कहा- हाँ महाराज! यह मेरी कुल्हाड़ी है। कृप्या दीजिए। देवता ठहका मारकर हँसे और बोले-बदमाश, चला है हमारी आँखों में धूल झोंकने! झूठे कहीं के जा, अब कभी तुझ पर हमारी दया न होगी। यह कहकर देवता नदी में चले गए। फिर कभी निकलकर बाहर नहीं आए। वह झूठा आदमी अपनी करतूत पर माथा पीटता रह गया।

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