सेठजी का खाना
एक बार शहर के बड़े सेठजी ने हमें खाने पर बुलाया और अपने साथ हमें भी बिठाया। चांदी की थालियों में चांदी की कटोरियां,उनमें भांति-भांति के खाने- हलुवा भी, खीर भी, पूरियां भी, फुलके भी, कितनी ही सब्जियां । हमारी थाली के बाद सेठजी की थाली आई। उसमें पीली सी कोई पतली- सी (द्रव) वस्तु, उसके पास फुला हुआ छोटा सा अनचुपड़ा फुलका । मैंने समझा, सेठजी का असली खाना अभी आएगा, परन्तु वहां तो कुछ भी नहीं आया। सेठजी उसी एक फुलके को धीरे-धीरे खाते रहे, उस पतली-सी वस्तु में प्रत्येक ग्रास को भिगो-भिगोकर । मैंने । पूछा, सेठजी आप खाना कब खाएंगे ? वह बोले- खा तो रहा, हूं। यह फुलका, यह मूंग की दाल का पानी। बस ! इतना ही खा सकता हूँ। मैंने पूछा तो आप दूध अधिक पीते होंगे। वह बोले- नहीं जी, दूध तो मेरे पेट में गैस उत्पन्न कर देता है। मैंने कहा दही, छाछ लेते होंगे? बोले एक बार खाया था छः महीने जुकाम रहा था। मैंने कहा-छुहारे, पिस्ते, बादाम खाते होंगे आप? वह बोले भगवान का नाम लो जी ! ये तो बहुत गर्म वस्तुएं हैं इन्हें पचाएगा कौन? ये दुर्दशा है इन बड़े- बड़े सेठों की। दो फुलके भी नहीं खा सकते। फिर सेठपन क्या हुआ? किस काम का है ये ? इन लोगों से पूछो इतना काम क्यों करते हो? तो उत्तर देंगे- धन कमाने के लिए। पूछो धन क्यों कमाते हो ? खाना खाने के लिए। फिर खाते क्यों नहीं हो ? बोलेंगे डॉक्टर ने निषेध कर दिया है। इस कमाई का आखिर क्या अभिप्राय है?
भीतरी बात-गहरी बात - कमाना महत्वपूर्ण नहीं बचाना महत्वपूर्ण है, खाना महत्वपूर्ण नहीं पचाना महत्वपूर्ण है।
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