कभी-कभी रोग से दवा दुःखदायी
कभी-कभी रोग से दवा दुःखदायी
बरसात के दिन थे। नदी में बाढ़ आई हुई थी। फिर भी एक गीदड़ हिम्मत बांधकर उसमें कूद पड़ा और उसे पार करने लगा। जब तैरत तैरते बीच धार में पहुँचा, तब पानी के तेज बहाव के साथ नीचे की ओर बह चला। परन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी, लगातार तैरता रहा। लहरों के थपेड़े खाते-खाते आगे बढ़ता रहा और अन्त में उस पार जा पहुँचा। परन्तु तभी किनारे की दलदल में ऐसा फंस गया कि बाहर न निकल सका।। गीदड़ तो इस कष्ट में फंसा ही था। अब उसे एक और कष्ट ने और आ घेरा। उस पर कितने ही मच्छर टूट पड़े और मजे से उसकी पीठ में अपनी-अपनी सूंढ़ें चुभाकर उसका खून पीने लगे। भला गीदड़ इस कष्ट का सामना कैसे करता, बेचारा न कहीं भाग सकता था। दल-दल में फंसा हुआ वह चीख उठता था।
इतने में साही वहां आ निकली। गीदड़ का यह कष्ट देखकर उसे बड़ी दया आई। वह गीदड़ से बोली। भाई, ये मच्छर तुम्हें कष्ट दे रहे हैं। कहो तो मैं इन्हें उड़ा दूँ।
गीदड़ चतुर और समझदार था। सोचकर कहा, नहीं बहिन, रहने दो। इन्हें उड़ाने की आवश्यकता नहीं। साही ने चकित होकर पूछा- क्यों? गीदड़ ने आह भरकर उत्तर दिया, ये मच्छर बड़ी देर से मेरा खून चूस रहे हैं, इसलिए इनकी भूख बहुत कुछ बुझ चुकी है। और अब स्वयं भागते जाते हैं। यदि तुम इन्हें भगा दोगी तो ये भूखे रह जाएँगे। इनके बाद अपने सैकड़ों-हजारों साथियों को लेकर आ पहुँचेंगे और मेरा सारा खून चूस डालेंगे फिर तुम कितनी ही चेष्टा करोगी, ये । भागने का नाम न लेंगे और मेरे प्राण लेकर ही शान्त होंगे।
एक बात और है। यदि तुमने इनको भगाने के लिए अपने कांटे चालए और दो-चार मेरे शरीर में चुभ गए तो ऐसी हालत में रोग के बदले दवा ही मुझे अधिक दुःखदायी हो जाएगी। इसलिए अच्छा तो यही है कि मैं अभी थोड़ा-सा और भोग लूँ। फिर शायद अधिक सुख पा सकूँ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें